Saturday, September 18, 2010

सूखती स्याही और कुन्द होती खबरों की धार : के. पी .त्रिपाठी


“मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ” दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति वर्तमान मीडिया परिवेश में अक्षरतः सटीक बैठती हैं। कलम की स्याही सूख रही है। खबरों की धार कुंद होती जा रही है। रिर्पोटर पूरी तरह से कवरेज नहीं कर पा रहे हैं। चारों ओर से दबाव और कुछ ने करो की हिदायत के साथ मीडिया की स्वतंत्रता का तमगा।
कुछ इसी मृगमारिचिका में चल रहे हैं आज के मीडिया के संस्थान। कहीं प्रदेश सरकार का दबाव तो किसी पर स्थानीय प्रषासन का। कुल मिलाकर सब कुछ दबाव में। मीडिया में आए इस बदलाव के बारे मंे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं। खबरें छपती हैं। लेकिन बिना किसी प्रतिक्रिया के फाइल में दफन हो जाती है। हर दिन रिर्पोटस के उपर सकारत्मक रिर्पोटिंग का दबाव।
कुल मिलाकर वर्तमान में मीडिया की भूमिका पर चिंता जायज है। लेकिन सभी को मिलकर इसका रास्ता तलाषना होगा। वरन मीडिया को खुद आगे बढ़कर अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी नहीं तो मीडिया पर नियंत्रण के समर्थन में जो मुहिम चलाई जा रही है। उसके दूरगामी परिणाम खतरनाक होंगे। आम आदमी से मीडिया की पकड़ दूर होती जा रही है। लोग अखबार तो खरीदते हैं लेकिन पढ़ते कितना हैं ? समाचार पत्रों की बिक्री आज लोकलुभावनी योजनाओं के सहारे हो रही हैं। नित नई स्कीमों के सहारे बिक रहे हैं समाचार पत्र लेकिन सवाल है कब तक यह चलेगा ? मीडिया मे जब से कार्पोरेट कल्चर का दखल बढा वह आम आदमी से दूर होता चला गया और खत्म हो गई खबरों की प्रसंगिकता।
24 अगस्त 1936 में मुबंई के पत्रकारों द्वारा दिए गए अभिनन्दन पत्र के जवाब में जवाहर लाल नेहरू ने द बाम्बे क्रानिकल में लिखे लेख में कहा था “आज के जमाने में सार्वजनिक जीवन में पत्रकारिता और पत्रकारों की भूमिका बडी महत्तवपूर्ण है। हिन्दुस्तान में या तो सरकार के जरिए या अखबरों के मालिकों के जरिए या फिर विज्ञापनदाताओं के दबाव से तथ्यों के दबाए जाने की संभावना है। मैं इस बात का बुरा नहीं मानता कि अखबार अपनी नीति के मुताबिक किसी खास तरह की खबरों का तरजीह दें, लेकिन मैं खबरों को दबाए जाने के खिलाफ हूं , क्योंकि इससे दुनिया की घटनाओं के बारे में सही राय बनाने का एकमात्र साधन जनता से छिन जाता है। वह ताकत अपने हाथ मंे रखिए अगर वह गई तो आपका महत्व भी जाता रहेगा“ नेहरू जी के कहे ये षब्द आज की मीडिया पर सटीक बैठते हैं। शायद उन्हे भान था कि भविष्य में मीडिया का क्या हश्र होने वाला है।

Friday, September 17, 2010

यह लेखनी कैसी कि जिसकी बिक गयी है आज स्याही !


यह लेखनी कैसी कि जिसकी बिक गयी है आज स्याही !
यह कलम
कैसी

कि जो देती दलालों की गवाही !
पद-पैसों का लोभ छोड़ो , कर्तव्यों से गाँठ जोड़ो ,
पत्रकारों, तुम उठो , देश जगाता है तुम्हें !
तूफानों को आज कह दो , खून देकर सत्य लिख दो ,
पत्रकारों , तुम उठो , देश बुलाता है तुम्हें !
” जयराम विप्लव “


ज एक दुनिया देखी हमने, जहां अभिव्यक्ति विकृति की संस्कृति में ढल रही है .हिंदी समाज की विडंबना हीं कहिये , सामाजिक सरोकारों पर मूत्र त्याग कर व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त हो लेखन  कर्म को वेश्यावृत्ति से भी बदतर बना दिया गया है .अंतरजाल में शीघ्रता से फ़ैल रहे हिंदी पाठक कुंठित दिखते हैं . मौजूदा समय में धार्मिक कुप्रचार ,निजी दोषारोपण,अमर्यादित भाषा ,तथ्य और तर्क विहीन लेखन यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं .
जब विचारों को किसी वाद या विचारधारा का प्रश्रय लेकर  ही समाज में स्वीकृति  मिलने का प्रचलन बन जाए तब  व्यक्तित्व का निर्माण संभव नही. आज यही कारण है कि  भारत या तमाम विश्व में पिछले ५० वर्षो में कोई अनुकरणीय और प्रभावी हस्ताक्षर का उद्भव नही हुआ. वाद के तमगे  में जकड़ी मानसिकता अपना स्वतंत्र विकास नही कर सकती और न ही सर्वसमाज का हित सोच सकती है.
मानवीय प्रकृति में मनुष्य की संवेदना तभी जागृत होती है जब पीड़ा का अहसास प्रत्यक्ष रूप से हो.जीभ को दाँतों के होने का अहसास तभी बेहतर होता है ,जब दातो में दर्द हो. शायद यही वजह रही कि  औपनिवेशिक समाज ने बड़े विचारको और क्रांति को जन्म दिया. आज के नियति और नीति निर्धारक इस बात को बखूबी समझते है . अब किसी भी पीड़ा का भान समाज को नही होने दिया जाता ताकि क्रांति न उपजे. क्रांति के बीज को परखने और दिग्भ्रमित करने के उद्देश्य से सता प्रायोजित धरना प्रदर्शन का छद्म  खेल द्वारा हमारे आक्रोश को खोखले नारों की गूंज में दबा देने की साजिश कारगर साबित हुई है.  कई जंतर मंतर जैसे कई सेफ्टी-वाल्व को स्थापित कर बुद्धिजीवी वर्ग जो क्रांति के बीज समाज में बोया करते थे, उनको बाँझ बना दिया गया है.इतिहास साक्षी है कि कलम और क्रांति में चोली दामन का साथ है. अब कलम को बाज़ार का सारथि बना दिया गया. ऐसे में किसी क्रांति की भूमिका कौन लिखेगा? तथाकथित  कलम के वाहक बाज़ार की महफिलों में राते रंगीन कर रहे है.बाज़ार के बिस्तर पर स्खलित  ज्ञान कभी क्रांति का जनक नही हो सकता.
तो अब जबकि  बाज़ार के चंगुल से मुक्त अभिव्यक्ति का मन्च ब्लागिंग के रूप में सामानांतर विकल्प बन कर उभरा है तो हमारी जिम्मेदारी है कि छोटी लकीरों के बरक्स कई बड़ी रेखाए खिची जाएं. बाज़ारमुक्त और वादमुक्त हो समाजहित से राष्ट्रहित की ओर प्रवाहमान लेखन समय की मांग है. “जनोक्ति” परिवार ओज और धार से बनी हर एक लेखनी को आमंत्रित करता है । हमारे परिवार में शामिल होने के लिये चट्का लगायें ।